Showing posts with label कला. Show all posts
Showing posts with label कला. Show all posts

Saturday, March 23, 2024

कलाओं का रहस्य

प्रभु श्रीराम १२ कलाओं के ज्ञाता थे, तो भगवान श्रीकृष्ण सभी १६ कलाओं के ज्ञाता हैं। चंद्रमा की सोलह कलाएं होती हैं। सोलह शृंगार  भी होता है।

 आखिर ये १६ कलाएं क्या है? उपनिषदों अनुसार १६ कलाओं से युक्त व्यक्ति ईश्‍वरतुल्य होता है।कुमति, सुमति, विक्षित, मूढ़, क्षित, मूर्च्छित, जाग्रत, चैतन्य, अचेत आदि ऐसे शब्दों को जिनका संबंध हमारे मन और मस्तिष्क से होता है, जो व्यक्ति मन और मस्तिष्क से अलग रहकर बोध करने लगता है वही १६ कलाओं में गति कर सकता है।   

चन्द्रमा की सोलह कलाएं: अमृत, मनदा, पुष्प, पुष्टि, तुष्टि, ध्रुति, शाशनी, चंद्रिका, कांति, ज्योत्सना, श्री, प्रीति, अंगदा, पूर्ण और पूर्णामृत। 

इसी को प्रतिपदा, दूज, एकादशी, पूर्णिमा आदि भी कहा जाता है। उक्तरोक्त चंद्रमा के प्रकाश की १६ अवस्थाएं हैं उसी तरह मनुष्य के मन में भी एक प्रकाश है। मन को चंद्रमा के समान ही माना गया है। जिसकी अवस्था घटती और बढ़ती रहती है। चंद्र की इन सोलह अवस्थाओं से 16 कला का चलन हुआ। व्यक्ति का देह को छोड़कर पूर्ण प्रकाश हो जाना ही प्रथम मोक्ष है।

मन की तीन अवस्थाएं:
 प्रत्येक व्यक्ति को अपनी तीन अवस्थाओं का ही बोध होता है:- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। क्या आप इन तीन अवस्थाओं के अलावा कोई चौथी अवस्था जानते हैं?
 जगत तीन स्तरों वाला है:

१. एक स्थूल जगत, जिसकी अनुभूति जाग्रत अवस्था में होती है।
२. दूसरा सूक्ष्म जगत, जिसका स्वप्न में अनुभव करते हैं और
३. तीसरा कारण जगत, जिसकी अनुभूति सुषुप्ति में होती है।

तीन अवस्थाओं से आगे: सोलह कलाओं का अर्थ संपूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान से है। मनुष्‍य ने स्वयं को तीन अवस्थाओं से आगे कुछ नहीं जाना और न समझा। प्रत्येक मनुष्य में ये १६ कलाएं सुप्त अवस्था में होती है। अर्थात इसका संबंध अनुभूत यथार्थ इन सोलह कलाओं के नाम अलग अलग ग्रंथों में अलगे अलग मिलते हैं।

१. अन्नमया, २. प्राणमया, ३. मनोमया, ४. विज्ञानमया, ५. आनंदमया, ६. अतिशयिनी, ७. विपरिनाभिमी, ८. संक्रमिनी, ९. प्रभवि, १०. कुंथिनी, ११. विकासिनी, १२. मर्यदिनी, १३. सन्हालादिनी, १४. आह्लादिनी, १५. परिपूर्ण और १६. स्वरुपवस्थित।
 
अन्यत्र १. श्री, २. भू, ३. कीर्ति, ४. इला, ५. लीला, ६. कांति, ७. विद्या, ८. विमला, ९? उत्कर्शिनी, १०. ज्ञान, ११. क्रिया, १२. योग, १३. प्रहवि, १४. सत्य, १५. इसना और १६. अनुग्रह।
 
कहीं पर १. प्राण, २. श्रधा, ३. आकाश, ४. वायु, ५. तेज, ६. जल, ७. पृथ्वी, ८. इन्द्रिय, ९. मन, १०. अन्न, ११. वीर्य, १२. तप, १३. मन्त्र, १४. कर्म, १५. लोक और १६. नाम।

१६ कलाओं का रहस्य:
 
१६ कलाएं दरअसल बोध प्राप्त योगी की भिन्न भिन्न स्थितियां हैं। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की १५ अवस्थाएं ली गई हैं। अमावस्या अज्ञान का प्रतीक है तो पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का।

१९ अवस्थाएं: भगवदगीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने आत्म तत्व प्राप्त योगी के बोध की उन्नीस स्थितियों को प्रकाश की भिन्न-भिन्न मात्रा से बताया है। इसमें अग्निर्ज्योतिरहः बोध की ३ प्रारंभिक स्थिति हैं और शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ की १५ कला शुक्ल पक्ष की १ हैं। इनमें से आत्मा की १६ कलाएं हैं। आत्मा की सबसे पहली कला ही विलक्षण है। इस पहली अवस्था या उससे पहली की तीन स्थिति होने पर भी योगी अपना जन्म और मृत्यु का दृष्टा हो जाता है और मृत्यु भय से मुक्त हो जाता है।

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥

अर्थात: जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि अभिमानी देवता हैं, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।- (८-२४) भावार्थ: श्रीकृष्ण कहते हैं जो योगी अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के छह माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन पुरुषों और योगियों में आत्म ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से अग्निमय, ज्योर्तिमय, दिन के सामान, शुक्लपक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय और उत्तरायण के छह माहों के समान परम प्रकाशमय हो जाते हैं। अर्थात जिन्हें आत्मज्ञान हो जाता है। आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को जानना।